साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता कवयित्री अनामिका कहती हैं, कविता लिखना सूफियाना सिलसिला है

पिछले हफ्ते साहित्य अकादमी पुरस्कारों की घोषणा हुई। इसमें हिंदी भाषा में सुप्रसिद्ध कवयित्री अनामिका को उनके काव्य संग्रह टोकरी में दिगंत : थेरीगाथा 2014 के लिए से सम्मानित किया गया है। मूलत: बिहार के मुजफ्फरपुर की रहने वाली अनामिका हिंदी में कविता संग्रह के लिए अकादमी पुरस्कार से सम्मानित होने वाली पहली कवयित्री हैं। अमितेश कुमार ने उनसे बातचीत की। प्रस्तुत हैं मुख्य अंश : साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने पर आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या थी? मुझे लगा किसी ने मजाक किया है। लेकिन साहित्य अकादमी से फोन आया, तो लगा कि कुछ हुआ है। आश्चर्य हुआ, ये भी लगा कि हमारे साथ इतनी सारी स्त्रियां गांव-देहात की रहती हैं, उनकी आवाज कहीं पहुंची। हम एक ढनढनाता हुआ कुआं हैं, लेकिन हमारे भीतर कुछ आवाजें, कुछ परछाइयां रहती हैं। वे हमारे माध्यम से बोलती हैं, तो मुझे लगा कि इतने दिनों से एक दस्तक थी, कहीं सुनी गई। इस पुरस्कार को बहुत सारे लोगों ने इसलिए भी सेलिब्रेट किया क्योंकि एक स्त्री कवि या स्त्री कविता को पुरस्कार मिला? तो क्या कवि होना पर्याप्त नहीं है? देखिए कवि होना तो पर्याप्त है, लेकिन जिसकी आवाज कभी सुनी नहीं गई है, उसकी आवाज सुनी जाए तो यह एक नई घटना है ना! आज तक तो स्त्रियां ही सुनती रही हैं। हम एक जनतंत्र में रहते हैं, तो दोनों को एक-दूसरे को सुनना होगा। कोई भी बातचीत पूरी तो तभी होगी, जब हम थोड़ा आपसे कहेंगे या थोड़ा आपसे सुनेंगे। अगर खाली हम ही बोलेंगे या चाहे खाली आप ही बोलिएगा, तो वो भाषण, आदेश या संदेश तो हो सकता है, लेकिन वो बातचीत नहीं हो सकती है। हम तो एक बहुत साधारण स्त्री हैं, और हमारे मन में साधारण स्त्रियों की बात रहती है। ये पहली बार हुआ है कि सड़क की स्त्री, बस में चलने वाली स्त्री, गांव से आई स्त्री का आख्यान सामने आया है। आलोचकों का कहना है कि आपकी कविताओं में स्त्री को लेकर जितना अतीत मोह है उतना प्रतिरोध नहीं है... क्योंकि मैं बहुत साधारण स्त्री हूं, विशिष्ट नहीं हूं। जो साधारण स्त्री का संसार है, वही मेरा संसार है। अगर हम आपसे संवाद के लिए प्रस्तुत हैं तो मतलब है कि हमारे मन में कोई बात है। बिना प्रतिरोध के तो कोई संवाद करना नहीं चाहता है। मन मस्त हुआ तो क्या बोलें? तब तो चुप बैठेंगे। लेकिन प्रतिरोध का मतलब यह नहीं कि कोई आपको एक मुक्का मार रहा है, तो आप भी चार मुक्का मारिए। मेरी स्त्रियां साधारण हैं और वे संवाद के जरिए बदलाव चाहती हैं। पिछले दो-तीन साल में हिंदी के कई बड़े कवि चले गए। जिन्हें अस्सी के दशक के कवि कहा जाता रहा है। क्या अस्सी के दशक के कवियों का समय खत्म हो रहा है? नहीं-नहीं। किसी के भी यश की काया कभी नहीं जाती। जो वे लिख गए हैं, वे तो अक्षर हैं, अमर हैं, उनकी अनुगूंजें हमारे भीतर हमेशा टहलती रहेंगी। कविता लिखना तो एक सूफियाना सिलसिला है। वे जो लिख गए, उसकी मशाल हमने थामी। हमने जो थोड़ा-बहुत किया, उसकी मशाल आप थामेंगे। हिंदी समाज एक संयुक्त परिवार जैसा है, जिसमें चार-पांच पीढ़ियां एक साथ हमेशा कारगर रही हैं। हमारे समय में सोचते थे कि पचीस साल पर पीढ़ी बदलती है, लेकिन अब तो दस-दस साल पर पीढ़ियां, नजरिया और भाषा बदल जाती हैं। भाषा जैसे कभी खत्म नहीं होती, वैसे ही अनुगूंजें भी कभी खत्म नहीं होतीं। अक्षर तो अविनाशी है। एक पूरी पीढ़ी ऐसी गुजर गई, जिसे आलोचना की छांव मयस्सर नहीं हुई। रघुवीर सहाय के युग तक के कवियों का आलोचना ने मूल्यांकन किया, उस पर बहस भी हुई और वो सामाजिक बहस का हिस्सा भी बने। उसके बाद कवि अपना लिखते रहे और लोग सुनते रहे, मगर फ्रेंडली समीक्षाओं के अलावा इनको कसी हुई आलोचना नहीं मिली। रघुवीर सहाय के बाद कविता क्या सामाजिक विमर्श के परे चली गई है? आलोचकों की वह निगाह क्यों नहीं पड़ी, जैसी कि उनके वक्त पड़ती थी? इसका एक कारण यह हो सकता है कि अब उस तरह से लोक को समर्पित साहित्यिक जर्नल या अखबार नहीं रहे। एक यह भी कि चीजों का कैननाइजेशन होना चाहिए और यह काम प्रकाशकों और जर्नलों का होता है। लेकिन फंडिंग की कमी है। अखबारों में भी कविताएं छपनी बंद हो गईं। जो पत्रिकाएं हम अपनी जेब से पैसे लगाकर निकाल लेते थे, जिससे लोगों तक बात पहुंचती थी, आपस में भी बात करते थे, वह भी बंद हो गया। फिर इंटरनेट आ गया, जिसपर कोई लंबा नहीं लिख पाता। वहीं जो धनी हैं, उन्हें सरोकार से ज्यादा मनोरंजन का पक्ष समझ आता है। जिसे पालथी मारकर पढ़ना कहते हैं, वह मध्यवर्ग की विषय वस्तु है, पर वे भी अब रोजी-रोटी से जूझ रहे हैं। लेकिन जब ये नई पीढ़ी थिराएगी, तो उनके अंदर जो सरोकार जिंदा हैं, मन में जो नोट्स बने हुए हैं, वे फिर से गूंजेंगे। हालांकि अभी भी कुछ पत्र पत्रिकाएं हैं, जिन्होंने जिम्मेदारी संभाली हुई है, इतनी निराशा की बात नहीं है। फिर भी एक संस्थागत सपोर्ट नहीं है, जो हमें आपसदारी से ही ठीक करना होगा। आपसदारी की बात आपने की, मगर दिखता है कि आलोचना या समीक्षा से दूर हिंदी के साहित्यकार आपस में ही लड़ते रहते हैं.... मैं कभी कभी दुखी होती हूं तो सोचती हूं कि क्या तू-तू मैं-मैं लगा रखी है! इतने बुर्जुग लोग, सबके बाल भी पक गए, फिर भी तू-तू मैं-मैं। कोई आपसदारी नहीं, कोई सहकारिता नहीं। कुछ भी हो रहा हो, मगर हम एक ही समाज में एक ही टेक्स्ट जेनरेट कर रहे हैं, बस हम अलग-अलग सिरों से लिख रहे हैं। बचपन में हम चादर काढ़ने बैठते थे तो चार कोनों पर हम चार लोग बैठते थे और काम पूरा कर देते थे। अब अगर कोई एक खूंटा खींचकर कहे कि हमारा ही कोना सबसे अच्छा है, तो जान लीजिए कि बेहतरीन परिणाम सामूहिक श्रम से होता है, स्पर्धा से नहीं। वहीं आज साहित्यकार का समाज और खुद उसके अपने घर में ही अनादर है। अपने ही घर में बाल-बच्चे सोचते हैं कि ये तो किसी काम का नहीं है, दिन भर कागज काले करता रहता है।


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