‘छोटे रावत’ यानी तीरथ सिंह रावत के लिए भी खतरा!

मार्च महीने में जब बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने उत्तराखंड में मुख्यमंत्री पद से त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाने का फैसला किया था, तो यह माना गया था कि उनकी परफॉर्मेंस ऐसी नहीं पाई गई, जिसके जरिए अगले साल के शुरुआती महीनों में होने वाले राज्य विधानसभा के चुनाव में सत्ता को बरकरार रखने की उम्मीद की जा सके। उनकी जगह उनसे अपेक्षाकृत युवा तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया गया था। स्वाभाविक तौर पर उनसे यह अपेक्षा थी कि जिन वजहों से त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाना जरूरी हुआ, उनसे वह पार्टी को बाहर लाएंगे। एक तरह से यह तय माना जा रहा था कि अगले चुनाव में वही सीएम पद के लिए पार्टी के चेहरा होंगे। चुनाव तक उन्हें मुख्यमंत्री बने बहुत समय नहीं हुआ होगा, इसलिए ‘एंटी इन्कम्बैंसी’ फैक्टर भी प्रभावी नहीं होगा। लेकिन दो महीने के दरमियान उनकी जो परफॉर्मेंस रही है और पार्टी की जो इंटरनल पॉलिटिक्स है, उसमें उनको चुनाव में सीएम का चेहरा बनाए जाने की उम्मीद खत्म होती दिख रही है। सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ने की बात होने लगी है और असम मॉडल की तर्ज पर नतीजे आने के बाद मुख्यमंत्री चुना जा सकता है। पार्टी के कई सीनियर नेता भी यह कहने लगे हैं कि पार्टी किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुनाव लड़ेगी या सामूहिक नेतृत्व पर, यह पहले से तय नहीं होता, यह चुनाव घोषित होने पर पार्लियामेंट्री बोर्ड की बैठक में तय किया जाएगा। तीरथ सिंह रावत के लिए जो खतरे की घंटी है, उसमें उनकी परफॉर्मेंस से ज्यादा इंटरनल पॉलिटिक्स को जिम्मेदार माना जा रहा हैं। राज्य के लिए मुख्यमंत्री पद के कई दावेदार हैं, जिसमें कुछ दिल्ली में शीर्ष नेतृत्व के बहुत नजदीकी माने जाते हैं। वे अपनी संभावनाओं को खत्म होते नहीं देखना चाहते, इसलिए सामूहिक नेतृत्व पर ज्यादा जोर है।

तीरथ सिंह रावत के लिए जो खतरे की घंटी है, उसमें उनकी परफॉर्मेंस से ज्यादा इंटरनल पॉलिटिक्स को जिम्मेदार माना जा रहा हैं। राज्य के लिए मुख्यमंत्री पद के कई दावेदार हैं, जिसमें कुछ दिल्ली में शीर्ष नेतृत्व के बहुत नजदीकी माने जाते हैं। वे अपनी संभावनाओं को खत्म होते नहीं देखना चाहते, इसलिए सामूहिक नेतृत्व पर ज्यादा जोर है।


‘छोटे रावत’ यानी तीरथ सिंह रावत के लिए भी खतरा!

मार्च महीने में जब बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने उत्तराखंड में मुख्यमंत्री पद से त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाने का फैसला किया था, तो यह माना गया था कि उनकी परफॉर्मेंस ऐसी नहीं पाई गई, जिसके जरिए अगले साल के शुरुआती महीनों में होने वाले राज्य विधानसभा के चुनाव में सत्ता को बरकरार रखने की उम्मीद की जा सके। उनकी जगह उनसे अपेक्षाकृत युवा तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया गया था। स्वाभाविक तौर पर उनसे यह अपेक्षा थी कि जिन वजहों से त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाना जरूरी हुआ, उनसे वह पार्टी को बाहर लाएंगे। एक तरह से यह तय माना जा रहा था कि अगले चुनाव में वही सीएम पद के लिए पार्टी के चेहरा होंगे। चुनाव तक उन्हें मुख्यमंत्री बने बहुत समय नहीं हुआ होगा, इसलिए ‘एंटी इन्कम्बैंसी’ फैक्टर भी प्रभावी नहीं होगा। लेकिन दो महीने के दरमियान उनकी जो परफॉर्मेंस रही है और पार्टी की जो इंटरनल पॉलिटिक्स है, उसमें उनको चुनाव में सीएम का चेहरा बनाए जाने की उम्मीद खत्म होती दिख रही है। सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ने की बात होने लगी है और असम मॉडल की तर्ज पर नतीजे आने के बाद मुख्यमंत्री चुना जा सकता है। पार्टी के कई सीनियर नेता भी यह कहने लगे हैं कि पार्टी किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुनाव लड़ेगी या सामूहिक नेतृत्व पर, यह पहले से तय नहीं होता, यह चुनाव घोषित होने पर पार्लियामेंट्री बोर्ड की बैठक में तय किया जाएगा। तीरथ सिंह रावत के लिए जो खतरे की घंटी है, उसमें उनकी परफॉर्मेंस से ज्यादा इंटरनल पॉलिटिक्स को जिम्मेदार माना जा रहा हैं। राज्य के लिए मुख्यमंत्री पद के कई दावेदार हैं, जिसमें कुछ दिल्ली में शीर्ष नेतृत्व के बहुत नजदीकी माने जाते हैं। वे अपनी संभावनाओं को खत्म होते नहीं देखना चाहते, इसलिए सामूहिक नेतृत्व पर ज्यादा जोर है।



आ ‘SIT’ मुझे मार
आ ‘SIT’ मुझे मार

एक पुरानी कहावत है- आ बैल मुझे मार, लेकिन कमलनाथ ने इसे अपने लिए ‘आ एसआईटी, मुझे मार’ कर लिया है। मध्य प्रदेश के ‘हनीट्रैप’ कांड से तो सभी परिचित हैं, जिसमें राज्य बीजेपी के कई बड़े चेहरे फंसे हुए हैं। पिछले दिनों मध्य प्रदेश में कमलनाथ ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की, जिसमें उन्होंने कहा कि ‘हनीट्रैप’ कांड की ‘पेन ड्राइव’ उनके पास है। बस फिर क्या था, इस मामले की जांच कर रही एसआईटी उनके पीछे लग गई है। नोटिस भेजकर उनसे पेन ड्राइव उपलब्ध कराने की मांग कर रही है। कमलनाथ यह कहकर पीछा छुड़ाने की कोशिश कर रहे हैं कि ‘पेन ड्राइव’ अकेले उन्हीं के पास तो है नहीं, हजारों लोगों के पास है, जाकर किसी से ले लो। लेकिन एसआईटी उनका पीछा छोड़ती नहीं दिख रही है। वह कह रही है कि हजारों लोगों में से तो किसी ने भी ‘पेन ड्राइव’ अपने पास होने का क्लेम नहीं किया, आपने किया है, आप दो, क्योंकि इस कांड की एफआईआर दर्ज है, जिसकी जांच हो रही है, जांच में यह अहम सबूत साबित हो सकती है। अगर आपने नहीं दिया तो यह सबूत को नष्ट करना माना जाएगा, यानी कमलनाथ के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने की भी तैयारी है। कहते हैं कि ‘पेन ड्राइव’ होने का दावा उन्होंने अपने एक विधायक को बचाने की रणनीति के तहत किया था। कांग्रेस के एक विधायक की महिला मित्र ने पिछले दिनों आत्महत्या कर ली, जिसकी वजह से विधायक पुलिस के घेरे में हैं और बीजेपी के नेता पूरी कांग्रेस पर हमलावर हैं। बीजेपी नेताओं को चुप कराने के लिए उन्हें ‘पेन ड्राइव’ होने की बात कही थी। खैर एसआईटी और कमलनाथ के बीच चलने वाली यह लड़ाई किस करवट बैठेगी, यह तो वक्त ही बताएगा।



अखिलेश को आचार्य का फॉर्म्युला
अखिलेश को आचार्य का फॉर्म्युला

वैसे तो आचार्य प्रमोद कृष्णम कांग्रेस के लीडर हैं, लेकिन उन्होंने एसपी चीफ अखिलेश यादव को अपने चाचा शिवपाल यादव के साथ तल्खी खत्म करने और एका करने एक फॉर्म्युला सुझाया है। इसके लिए उन्होंने अखिलेश से सीधी बात भी की। आचार्य का फॉर्म्युला यह है कि अखिलेश को अपनी चाची के हाथ का खाना खाने के लिए शिवपाल के घर जाना चाहिए और वहां उनके साथ थोड़ा वक्त गुजारना चाहिए। इस बीच वहां कोई पॉलिटिकल बातचीत नहीं होनी चाहिए। इसके बाद वह गारंटी लेते हैं कि शिवपाल अखिलेश की सारी शर्तें मानने को तैयार हो जाएंगे, यहां तक कि वह अपनी पार्टी का समाजवादी पार्टी में विलय भी कर सकते हैं। यह बात अलग है कि अभी तक उनकी इस सलाह पर अखिलेश ने अमल नहीं किया। पिछले दिनों मीडिया के साथ एक अनौपचारिक बातचीत में उनसे सवाल हुआ कि क्या उन्होंने ऐसी कोई सलाह अखिलेश को दी थी तो उन्होंने स्वीकारा कि हां, सलाह दी थी, उसे मानना या ना मानना अखिलेश पर निर्भर करता है। बीजेपी को राज्य में दोबारा आने से रोकने के लिए बीजेपी विरोधी वोटों का बंटवारा तो रोकना ही होगा। हालांकि अखिलेश और शिवपाल के बीच एका कराने की मुलायम सिंह यादव की कोशिशें भी नाकाम रही हैं। अब शिवपाल यादव ने प्रदेश की 125 सीटों पर चुनाव लड़ने की बात कही है। अन्य दलों के साथ गठबंधन करने का भी रोडमैप वह तैयार कर रहे हैं।



तमिलनाडु में ‘नई पॉलिटिक्स’
तमिलनाडु में ‘नई पॉलिटिक्स’

एक वक्त वह था, जब तमिलनाडु की दो प्रमुख पार्टियों- एआईएडीएमके और डीएमके के बीच राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता से ज्यादा व्यक्तिगत प्रतिद्वंद्विता दिखती थी। दोनों पार्टियों के चीफ क्रमश: जयललिता और करुणानिधि एक दूसरे का चेहरा देखना पसंद नहीं करते थे। 2001 की उस घटना को भुलाया नहीं जा सकता, जब जयललिता चीफ मिनिस्टर थीं और एक रात उन्होंने बुजुर्ग करुणानिधि को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस भेज दी थी। चूंकि खुद सीएम ने करुणानिधि की गिरफ्तारी का आदेश दिया था, उसके मद्देनजर पुलिस करुणानिधि के घर का दरवाजा तोड़कर अंदर घुसी। घर की टेलीफोन लाइनें काट दीं। वह जिन कपड़ों में सो रहे थे, उन्हीं में घसीटते हुए बाहर लाई। इस दरमियान उनके साथ हाथापाई भी हुई। उन्हें बचाने के लिए मुरासोली मारन बीच में आए, तो उन्हें भी सरकारी काम में बाधा डालने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन अब न तो जयललिता रहीं और न ही करुणानिधि। एआईएडीएमके का चेहरा अब पलानीस्वामी हैं और डीएमके के स्टालिन। ऐसा लगता है कि दोनों के नेतृत्व में राज्य में ‘नई पॉलिटिक्स’ का दौर शुरू हुआ है, जहां ‘व्यक्तिगत प्रतिद्वंद्विता’ हाशिए पर जाती दिख रही है। छह महीने पहले पलानीस्वामी की माता के निधन पर शोक व्यक्त करने के लिए स्टालिन उनके घर जा पहुंचे थे। यह पहली बार हुआ था जब एक पार्टी का चीफ, दूसरी पार्टी के चीफ के घर गया था। बतौर मुख्यमंत्री स्टालिन ने कोविड के मद्देनजर एक एडवाइजरी कमेटी बनाई है, उसमें उन्होंने एआईएडीएमके नेताओं को भी शामिल किया है। उधर पलानीस्वामी ने मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद स्टालिन से उस सरकारी बंगले को उन्हीं के नाम रहने देने का अनुरोध किया, जो उन्हें बतौर मंत्री 2011 में आवंटित हुआ था। स्टालिन ने उनके इस अनुरोध को भी स्वीकार कर लिया। आमना-सामना पड़ने पर दोनों नेताओं के बीच संवाद भी होता है।





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