नई दिल्ली: देश कही मौजूदा सियासत में इधर क्षेत्रीय दलों के भीतर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बढ़ाने की चाहत और महत्वाकांक्षा दोनों ही बढ़ी है। यही वजह है कि सालों से जो क्षेत्रीय दल अपने राज्यों व इलाके में राजनीति कर रहे थे, वह अपना दायरा बढ़ाकर दूसरे राज्यों में जा रहे हैं। महाराष्ट्र की सियासत में अपना एक अलग मुकाम रखने वाली शिवसेना (Shiv Sena News) भी इसका अपवाद नहीं है। शिवसेना महाराष्ट्र से निकल गोवा, यूपी जैसे दूसरे राज्यों में अपने लिए अवसर तलाश रही है। पिछले दिनों शिवसेना नेता संजय राउत (Sanjay Raut) का बयान था कि शिवसेना (Aditya Thackeray) के नेतृत्व देशभर में लोकसभा चुनाव लड़ेगी। राउत का यह बयान पार्टी के इरादे और आगामी रणनीति के बारे में दो साफ संकेत देता है। पहला, पार्टी आने वाले दिनों में राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति करने का मन बना चुकी है। दूसरा, पार्टी का अगला नेतृत्व आदित्य ठाकरे के हाथों में होगा। हाल ही में दादरा, नगर हवेली के निर्दलीय दिवंगत सांसद मोहन डेलकर की पहली पुण्यतिथि पर संजय राउत और आदित्य ठाकरे न उनके घर जाकर उन्हें श्रद्धांजलि भी दी। वहां आदित्य ने कहा कि शिवसेना डेलकर परिवार की न्याय की लड़ाई में पूरी तरह से साथ है। गौरतलब है कि शिवसेना ने डेलकर के निधन के बाद उस सीट पर हुए उपचुनाव में उनकी पत्नी कलाबेन को टिकट देकर उन्हें जितवाने में पूरा जोर लगाया था। राष्ट्रीय पहचान की चाहत शिवसेना का मूल डीएनए मराठी रहा है, इसलिए वह ज्यादातर महाराष्ट्र तक ही सीमित रही। हालांकि शिवसेना ने इससे पहले भी महाराष्ट्र से बाहर निकलने की कोशिश की। वह गुजरात, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में चुनावों में उतर चुकी है। लेकिन 2019 के बाद कांग्रेस, एनसीपी के साथ महाआघाड़ी (Maha Vikas Aghadi) में आने के बाद उसे समझ में आ रहा है कि अगर सियासत में अपना वजूद और महत्ता बनाई रखनी है तो अपना दायरा व पहचान बढ़ानी होगी। टीएमसी, टीआरएस, आप की तर्ज पर वह खुद को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करना चाहती है। समय-समय के साथ सेना का रुख बदलता रहा है। सत्तर के दशक में जहां उसका रुख एंटी साउथ इंडियन था तो अस्सी के दशक में एंटी नॉर्थ इंडियन हुआ, नब्बे का दशक उसके आक्रामक हिंदुत्व के तेवर के लिए जाना जाता है तो 2019 के बाद वह खुद को एक अपेक्षाकृत सेक्युलर के तौर दिखाने की कोशिश कर रही है। इसके पीछे सोच राष्ट्रीय स्तर के साथ-साथ महाराष्ट्र में भी अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने की है। राज्य में वह मराठियों से अलावा गैर मराठियों के बीच भी पैठ बढ़ाना चाहती है। उद्धव की जगह आदित्य क्यों? महाराष्ट्र में शिवसेना का मतलब ठाकरे परिवार ही है। दूसरे क्षेत्रीय दलों की तरह सेना में भी पार्टी की कमान परिवार के हाथों ही रहेगी। आदित्य को ठाकरे परिवार व उद्धव ठाकरे के प्रतिनिधि के तौर पर देखा रहा है। आदित्य को चेहरा बनाने के पीछे एक वजह की सेहत संबंधी सीमाएं भी मानी जा रही हैं। अपनी सेहत के चलते उद्धव बहुत ज्यादा यात्राएं करने या भागदौड़ करने की स्थिति में नहीं हैं। कहा जाता है कि स्पाइन सर्जरी के बाद चीजें और जटिल हुई हैं। ऐसे में पार्टी सेना का अगला चेहरा आदित्य को ही बनाना चाह रही है। जहां उद्धव खुद नहीं जा सकते, वहां आदित्य को भेजा जाता है। पार्टी एक सूत्र के मुताबिक, इसे ग्रूमिंग का हिस्सा माना जा सकता है। नई पीढ़ी में जगह बनाना और यूथ कनेक्ट आदित्य को आगे करने के पीछे कहीं न कहीं सोच उसे देश में तेजी से उभर रहे युवा नेतृत्व की खेप में जगह बनाना भी है। पार्टी समझ रही है कि आने वाले समय में राजनीति में फैसले लेने की जिम्मेदारी युवा चेहरों की रहेगी। तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav), चिराग पासवान (Chirag Paswan), अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav), जयंत चौधरी (Jayant Chaudhary) जैसे तमाम युवा नेता हैं, जो अपनी पार्टी में धीरे-धीरे बैक सीट से फ्रंट सीट से पहुंचे हैं। इन तमाम युवा नेताओं का आपस में एक संवाद और समीकरण हैं, जो आने वाले सियासी चेहरे की रूपरेखा को तय करने में अहम भूमिका निभाएंगे। पार्टी अपने युवा नेता को भी उसी तौर पर तैयार करना चाहती है। जो अपने स्तर पर युवा नेताओं के बीच जगह बना सके। वहीं आदित्य को चेहरा बनाने के पीछे कहीं न कहीं यूथ कनेक्ट भी है। पार्टी को लगता है कि अपने युवा चेहरे व सोच के जरिए वह युवाओं में आसानी से पैठ बना सकते हैं। आदित्य की अब तक की इमेज ऐसी रही भी है। राष्ट्रीय राजनीति में आदित्य को स्थापित करना इसके पीछे सोच कहीं न कहीं राष्ट्रीय स्तर पर आदित्य को स्थापित करना भी है। उन्हें बड़ी भूमिका देकर सेना चाहती है कि आदित्य अपनी पहचान महाराष्ट्र से निकलकर राष्ट्रीय स्तर पर बनाएं। यह पार्टी के विस्तारवादी रणनीति का ही हिस्सा है। इसकी एक झलक महाराष्ट्र सरकार में आदित्य के दर्जे व उन्हें मिली जिम्मेदारियों से मिलती है। आदित्य उद्धव सरकार में सिर्फ पर्यावरण व पर्यटन मंत्री नहीं हैं, उन्हें प्रोटोकॉल मंत्री का दर्जा भी मिला है। मुंबई में जितनी भी राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय हस्तियां आती हैं, उनसे मिलने, उन्हें रिसीव करने की जिम्मेदारी आदित्य की है। जाहिर सी बात है कि शिवसेना एवं ठाकरे परिवार चाहता है कि उद्धव के सक्रिय रहते ही आदित्य राजनीति में अपनी अलग पहचान बना लें। एक्सपर्ट की राय महाराष्ट्र की राजनीति पर पकड़ रखने वाले एक्सपर्ट और सीनियर जर्नलिस्ट अभय देशपांडे का मानना है कि शिवसेना राष्ट्रीय स्तर पर अपना वजूद बढ़ाना चाहती है, इसके लिए वह मेकओवर की प्रक्रिया से गुजर रही है। बाला साहेब की इमेज एक अग्रेसिव हिंदुत्ववादी नेता की थी। जबकि उद्धव को उनका माइल्ड वर्जन कहा जा सकता है। वह हिंदुत्व की बात करते रहे हैं, लेकिन उनके तेवर में बाला साहब जैसी तीखापन नहीं होता। आदित्य ठाकरे उसका और भी माइल्ड वर्जन माने जा सकते हैं। शिवसेना खुद को आक्रामक हिंदुत्ववादी की जगह कुछ हद तक सेक्युलर रूप में पेश कर रही है। हालांकि उसने हिंदुत्व का अजेंडा छोड़ा नहीं है, लेकिन अब वह हिंदुत्व व राजनीतिक के मिलान की बात नहीं करती।
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