क्या कन्हैया कुमार को जेल का वह लाल कटोरा याद है, जिसे उन्होंने आज किनारे फेंक दिया

नई दिल्ली आज से करीब साढ़े 5 साल पहले, 3 मार्च 2016 को देश के सियासी क्षितिज पर एक नए सितारे का उदय हुआ था। युवा जोश से भरा एक शानदार वक्ता जिसके जोशीले भाषणों पर 'आजादी-आजादी' के गगनभेदी नारे गूंज रहे थे, तालियों की गड़गड़ाहट से फिजा जैसे इंकलाबी हो गई थी। उस युवा ने जेल में नीले और लाल कटोरे का किस्सा सुनाया। रूपकों के सहारे बताया कि 'नीला' और 'लाल' कटोरा साथ आ गए हैं यानी देश में कुछ अच्छा होना है। लेकिन आज उस सितारे ने लाल कटोरे को ही फेंक दिया है। हम बात कर रहे हैं कन्हैया कुमार की, जिनमें तब इतनी संभावना देखी गई थी कि कुछ लोगों को उनमें लेफ्ट का तारणहार दिख रहा था। लेकिन अब वही कन्हैया लाल कटोरे को फेंककर, विचारधारा के लबादे को उतारकर कांग्रेस का दामन थाम रहे हैं। 9 फरवरी 2016 को जेएनयू परिसर में हुई देशविरोधी नारेबाजी के मामले ने तत्कालीन जेएनयू स्टूडेंट यूनियन के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को पूरे देश में एक जाना-पहचाना नाम और चर्चित चेहरा बना दिया। इसमें उनका जेल जाना और जमानत पर बाहर आने के बाद जेएनयू परिसर में सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती देते हुए उनके जबरदस्त जोशीले भाषण का बड़ा हाथ रहा। हाई कोर्ट से जमानत मिलने के 3 मार्च 2016 की रात को वह जेल से रिहा हुए। वहां से सीधे जेएनयू कैंपस पहुंचे जहां सैकड़ों की तादाद में स्टूडेंट्स उनका इंतजार कर रहे थे। रात करीब साढ़े 10 बजे कन्हैया ने भाषण देना शुरू किया। सभी टीवी न्यूज चैनलों पर उसे लाइव दिखाया गया। करीब 50 मिनट के भाषण में कन्हैया ने बीजेपी और आरएसएस के खिलाफ जमकर हमला बोला। सीधे पीएम मोदी को निशाने पर लिया। कन्हैया के भाषण से साफ था कि वह स्टूडेंट पॉलिटिक्स से राष्ट्रीय राजनीति में एंट्री के लिए तैयार हैं। उन्होंने रूपकों के सहारे बहुजन आंदोलन और लेफ्ट की एकता की पैरोकारी की। कन्हैया ने कहा, 'मुझे जेल में दो कटोरे मिले। एक का रंग नीला था और दूसरे का रंग लाल था। मैं उस कटोरे को देखकर बार-बार ये सोच रहा था कि मुझे किस्मत पर तो कोई भरोसा नहीं है। भगवान को भी नहीं जानते हैं…लेकिन इस देश में कुछ अच्छा होने वाला है कि एक साथ लाल और नीला कटोरा हैं एक प्लेट में…और वो प्लेट मुझे भारत की तरह दिख रही थी। वो नीला कटोरा मुझे आंबेडकर मूवमेंट लग रहा था और वो लाल कटोरा मुझे लेफ्ट मूवमेंट लग रहा था। अगर इसकी एकता हो गई तो...सबके लिए जो न्याय सुनिश्चित कर सके हम उसकी सरकार बनाएंगे।' अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं ने कन्हैया के भाषण की शान में कसीदे पढ़ने में देर नहीं लगाई। वह वामपंथी रुझान वाले बुद्धिजीवियों की भी आंख के तारे बन गए। उन्हें इस रूप में पेश किया जाने लगा कि नरेंद्र मोदी से सीधे दो-दो हाथ करने में सक्षण एक युवा नेता मिल गया है जो अपने भाषणों से लोगों में नया जोश भर देता है। उनमें एक ऐसे नेता का अक्स भी देखे जाने लगा जो बदहाल लेफ्ट के लिए तारणहार साबित होगा। कन्हैया तब मोदी-विरोधी राजनीति के केंद्र बनकर उभरे थे। टीवी चैनलों में उन्हें हाथों-हाथ लिया जाने लगा। सीपीआई ने उन्हें देशभर में पार्टी काडरों में जोश भरने के अभियान पर लगा दिया। 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने उन्हें उनके गृह जिले बेगूसराय से मैदान में उतारा। मुकाबला केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह से था जो पिछली बार नवादा सीट से जीते थे। बेगूसराय लोकसभा सीट पर भूमिहार वोटर निर्णायक भूमिका निभाते आए हैं। कन्हैया भी इसी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। सीपीआई को उम्मीद थी कि कन्हैया की बदौलत वह बेगूसराय में इस बार लाल परचम लहरा देगी। लेकिन जब नतीजे आए तो कन्हैया 1-2 लाख नहीं बल्कि 4 लाख से भी ज्यादा अंतर से चुनाव हार गए और जीत का सेहरा बंधा गिरिराज सिंह के सिर। कन्हैया के लिए सांत्वना पुरस्कार की तरह यह बात रही कि वह दूसरे नंबर पर रहे। हालांकि, नतीजों से इस सितारे की चमक धुंधली जरूर पड़ी। सीपीआई में न तो उनका चुनाव से पहले वाला रुतबा रहा और न राष्ट्रीय स्तर पर पहले जैसी चर्चा। कभी आंबेडकर और लेफ्ट मूवमेंट की एकता की पैरवी करने वाले कन्हैया कुमार आज 'लाल कटोरे' को ही फेंक चुके हैं। वह भले ही अपने घर में ही पहले चुनावी इम्तिहान में बुरी तरह फेल हो गए लेकिन कांग्रेस को उनमें उम्मीद की किरण दिख रही है। बिहार में अस्तित्व के संकट से जूझ रही कांग्रेस को कन्हैया में वहां अपना भविष्य दिख रहा है। उनका कांग्रेस का दामन थामते देखना उन वामपंथियों को जरूर निराश करने वाला है, जिन्हें उनमें लेफ्ट का कायापलट करने में सक्षम एक 'मसीहा' की छवि दिखती थी।


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