जनता की जय ही भारत माता की जय हैः प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल

यह बात कही जाती रही है कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और उसके बाद की राजनीति को समझने के लिए जवाहर लाल नेहरू को समझना जरूरी है। पिछले कुछ समय से के नारों के बीच नेहरू और उनकी बौद्धिक विरासत को लेकर बहस भी गरम है। इसी बीच प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल की किताब 'कौन हैं भारत माता?' हिंदी में आई है, जिसने भारतीय इतिहास, संस्कृति और भारत माता की संकल्पना को चर्चा के केंद्र में ला दिया है। प्रदीप कुमार सिंह ने प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल से बातचीत की। प्रस्तुत हैं मुख्य अंश : कहते हैं, नेहरू ने दिल्ली के आसपास कहीं जाट किसानों से पूछा था कि कौन हैं भारत माता, उनको भारत माता का अर्थ समझाया था। कौन हैं भारत माता? स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान देश में कैसे जन-जागरण किया जा रहा था और देशवासियों को शिक्षित-प्रशिक्षित किया जा रहा था, इसका एक उदाहरण है यह प्रसंग। नेहरू आंदोलन के दौरान आम लोगों से मिलते तो लोग भारत माता की जय बोल कर उनका स्वागत करते थे। यह बात 1946 की है। उनका सवाल लोगों से था कि जब आप भारत माता की जय कहते हैं, तो इसका मतलब क्या होता है? प्रसंग का सार तत्व यह है कि भारत में रहने वाले करोड़ों आम आदमी, आम इंसान ही भारत माता हैं। आम इंसान की जय ही भारत माता की जय है। दुर्भाग्य से आज आम नहीं, कुछ खास लोगों की जय को ही देश की जय बताया जा रहा है। क्या तब की भारत माता में कुछ बदलाव आया है? ऐसा कहा जा रहा है पिछले सत्तर सालों में देश में कुछ नहीं हुआ... आजादी के बाद भारत माता में कितना बदलाव आया, यह जानने के लिए हमें 1947 में जब देश आजाद हुआ था, तब का मानव विकास सूचकांक देखना होगा। फिर 17 साल बाद जब नेहरू का निधन हुआ तब और सत्तर साल बाद आज मानव विकास सूचकांक क्या है? सिर्फ दो मिसालों से बात साफ हो जाएगी। 1947 में औसत जीवन प्रत्याशा 31 साल और साक्षरता दर 18 फीसदी थी। आज औसत आयु 70 वर्ष और साक्षरता दर 75 प्रतिशत से ऊपर है। इन सत्तर सालों में लोकतंत्र को बनाए रखते हुए बिना तानाशाही अपनाए औसत आयु में वृद्धि कर देना कम महत्वपूर्ण नहीं है। औसत आयु के बढ़ने का मतलब है पौष्टिक आहार और स्वास्थ्य- चिकित्सा सुविधाओं का उपलब्ध होना। इसलिए मैं नहीं मानता कि सत्तर सालों में देश में कुछ नहीं हुआ। हां, देश के नाम और उपलब्धियां हो सकती थीं, लेकिन जो हुआ है उसे कम आंकना सही नहीं है। भारत माता की एक संकल्पना नेहरू की है, तो एक संघ परिवार की है। क्या दोनों संकल्पनाएं भारत और भारतवासियों को समझने-समझाने में सक्षम हैं? देखिए, देश में जो प्रगतिशील, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतें हैं, ये काम उनका था। कई वर्षों से कांग्रेस यानी नेहरू की अपनी पार्टी और दूसरी डेमोक्रेटिक सेक्युलर पार्टियों ने वैचारिक संप्रेषण की उपेक्षा की है। राजनीतिक दल विचार से दूर होते गए। इसलिए केवल भारत की संकल्पना पर ही नहीं, चारों ओर बहुत सारा भ्रम फैला हुआ है। इसे बहुत सुनियोजित तरीके से फैलाया गया है। हम भूल जाते हैं कि दो सौ साल की औपनिवेशिक लूट में 43 ट्रिलियन डॉलर इंग्लैंड ने भारत से खींचा। 1942-43 में बंगाल में बनावटी अकाल लाया गया। लाखों लोग मारे गए। इन विपदाओं से निपटते हुए हम यहां तक पहुंचे हैं। आज हम खुद कोरोना की वैक्सीन बना रहे हैं। 1960 में नेहरू इसी चीज को विजुआलाइज कर रहे थे, वे वैज्ञानिकों से जेनरिक दवाएं और वैक्सीन बनाने पर ध्यान देने को कह रहे थे। कह रहे थे कि हमें महामारियों पर कंट्रोल करना है। ऐसी स्थिति में इन सब उपलब्धियों के परे यह देखिए कि जाति-धर्म, लिंग के भेदभाव के बिना हम सब भारत माता की संतान हैं। इस बात को लोगों तक पहुंचाने में लापरवाही की गई। इतिहास और संस्कृति में भारत की जो संकल्पना है, आज भारत उसके कितना नजदीक है? इतिहास और संस्कृति कोई स्थिर, जड़ वस्तु नहीं होती। उसमें संकल्पनाओं और विभिन्न विचारों का विकास होता है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति को समझने के लिए नेहरू रूपक का इस्तेमाल करते हैं। वे कहते हैं कि यह मुझे किसी पुरानी पांडुलिपि के पन्नों की तरह लगती है, जिसमें कभी किसी ने कुछ इबारत लिखी, फिर किसी दूसरे ने इबारत लिखी। इस तरह से उस पर दसियों इबारत लिखी गईं, लेकिन कोई भी अगली इबारत पिछली इबारत को पूरी तरह मिटा नहीं पाई। आखिरी इबारत के बीच अभी भी पहली इबारत के चिह्न झलक जाते हैं। भारतीय संस्कृति मिली-जुली संस्कृति रही है। खान-पान से लेकर पहनावे तक इसे देख सकते हैं। भारत में आलू को पुर्तगाली ब्राजील से लाए थे। समोसा, जलेबी और हलवा तुर्क लाए। आज उत्तर भारत में बढ़िया नाश्ते की कल्पना आप इन चीजों के बिना नहीं कर सकते। कहने का मतलब है कि हमारी संस्कृति खुली संस्कृति है। इसने बहुत चीजों को स्वीकार किया और रिजेक्ट भी किया। नेहरू के उदारवाद को उच्चवर्गीय अभिजात्यवाद से भी जोड़ा जाता रहा है, जिसकी सीमाएं बाद में वाम, दक्षिण और सोशलिस्ट, तीनों खेमों ने अपने-अपने तरीके से रेखांकित कीं। क्या नेहरू के यहां इन आलोचनाओं की रोशनी में भारत माता या भारतीय राष्ट्र की अवधारणा को लेकर कभी कोई पुनर्विचार भी दिखता है? पहली बात अभिजात्य यानी सॉफिस्टिकेशन, शिष्टता अपने आप में कोई बुरी नहीं, बल्कि अच्छी चीज है। दूसरी बात, नेहरू का जन्म जरूर एक बहुत संपन्न परिवार में हुआ था, लेकिन उस संपन्नता की सीमाओं को उन्होंने प्रयत्नपूर्वक लांघा और गरीब से गरीब हिंदुस्तानी का विश्वास अर्जित किया। उनका सपना न्याय आधारित समाज का था और उनकी राजनीति जनोन्मुख, लोकतांत्रिक थी। इसीलिए तो वे मानते थे कि गरीब से गरीब हिंदुस्तानी की जय ही असल में भारत माता की जय है।


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