
यक्षों के अधिपति और उत्तर दिशा के दिक्पाल कुबेर हिंदुओं में धन व विलास के देवता कहे गए हैं। धनतेरस के दिन माता लक्ष्मी के साथ ही कुबेर के पूजन का भी विधान है। पंडित एसके उपाध्याय के अनुसार ऐसे में इस बार मंगलवार, 2 नवंबर 2021 को धनतेरस है और यदि आप भी इस दिन धन के देवता कुबेर को प्रसन्न करना चाहते हैं। तो कुछ उपाय आपकी इसमें मदद कर सकते हैं।
दरअसल प्राचीन ग्रंथों में कुबेर के वैश्रवण, निधिपति और धनद नाम भी बताए गए हैं। मान्यता के अनुसार कुबेर, ब्रहमा के मानस पुत्र पुलस्त ऋषि तनय वैश्रवा के बेटे हैं। वैश्रवा सुत के कारण ही उन्हें वैश्रवण भी कहा जाता है। वराह पुराण के अनुसार उन्हें ब्रहमा ने देवताओं का धनरक्षक नियुक्त किया था।

धार्मिक ग्रंथों मे कुबेर का निवास वट-वृक्ष कहा गया है। `वाराह-पुराण´ के अनुसार कुबेर की पूजा कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन की जानी चाहिए। वहीं वर्तमान में दीपावली पर धनतेरस को इनकी पूजा की जाती है। इसके अलावा कुबेर को प्रसन्न करने के लिए महा-मृत्युंजय मंत्र का दस हजार जाप आवश्यक माना गया है।
कुबेर मंत्र -
विनियोग - ॐ अस्य मन्त्रस्य विश्रवा ऋषि:, वृहती छन्द:, कुबेर: देवता, सर्वेष्ट-सिद्धये जपे विनियोग:। ऋष्यादि-न्यास - विश्रवा-ऋषये नम: शिरसि, वृहती-छन्दसे नम: मुखे, कुबेर-देवतायै नम: हृदि। सर्वेष्ट-सिद्धये जपे विनियोगाय नम: सर्वांगे।
षडग्-न्यास
कर-न्यास
अग्-न्यास
ॐ यक्षाय
अंगुष्ठाभ्यां नम:
हृदयाय नम:
ॐ कुबेराय
तर्जनीभ्यां स्वाहा
शिरसे स्वाहा
ॐ वैश्रवणाय
मध्यमाभ्यां वषट्
शिखायै वषट्
ॐ धन-धान्यधिपतये
अनामिकाभ्यां हुं
कवचाय हुं
ॐ धन-धान्य-समृद्धिं मे
कनिष्ठिकाभ्यां वौषट्
नेत्र-त्रयाय वौषट्
ॐ देही दापय स्वाहा
करतल करपृष्ठाभ्यां फट्
अस्त्राय फट्
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मान्यता है कि इस मंत्र (ॐ यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धन-धान्याधिपतये धन-धान्य-समृद्धिं मे देहि दापय स्वाहा।) का एक लाख जप करने पर सिद्धि की प्राप्ति होती है।
जानकारों के अनुसार भारत में कुबेर पूजा प्राचीन समय से चली आ रही है। ऐसे में देवभूमि उत्तराखंड में भी जाख और जाखिणी शब्द अत्यंत प्रचलित है। इन्हें ग्राम रक्षक भी माना जाता है। यहां भी यक्ष पूजा की प्राचीन परम्परा के अनेक प्रमाण मिलते हैं। परन्तु उनका कोई स्वतंत्र मंदिर अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है (जागेश्वर, उत्तराखंड में छोड़कर)।
वहीं देवीभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं से यक्षों की अनेक प्रतिमाएं सामने आयी हैं, लेकिन समय की मार से उनमें से अधिकांश दयनीय स्थिति में आ चुकीं है। इनमें राजकीय संग्रहालय, अल्मोड़ा में मौजूद 3री शती ई0 की यक्ष प्रतिमा इस क्षेत्र से अब तक प्राप्त सर्वाधिक प्राचीन यक्ष प्रतिमाओं में मानी जा सकती है।
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प्राचीन ब्राह्मण ग्रंथों के अलावा जैन और बौध्द ग्रंथों में भी यक्षों के चित्रण की परम्परा रही है, ये लौकिक देवताओं के रूप में भी पूजे जाते थे। वहीं कुबेर प्रतिमाओें के निश्चित लक्षण निर्धारित हैं। वराहमिहिर के अनुसार यक्षराज कुबेर को सत्ता के प्रतीक मानव विमान युक्त प्रदर्शित किया जाना चाहिए, जो किरीट-मुकुट धारण किए हुए विशाल उदर वाले हों।
जबकि मत्स्य पुराण में उनको विशाल शरीर, लम्बे उदर, अष्टनिधियों सें युक्त, धवल वस्त्रों से आभूषित, अलंकृत कुंडल, सुन्दर हार और बाजुबंध धारण किए, किरीट से अलंकृत, गदाधारी और नरयुक्त विमान पर विराजमान दिखाने का उल्लेख मिलता है।
वहीं अग्निपुराण में कुबेर को गदा आयुध सहित मेष पर आरूढ़ निर्मित करने का विधान किया गया है। विष्णुधर्मोत्तर जैसे ग्रंथों में उन्हें उदीच्यवेश, कवच, बाईं गोद में पत्नी ऋध्दि को धारण किए हुए 4 हाथ व रत्नपात्र से अलंकृत बताया गया है।
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कुबेर कमल के समान श्वेत, स्वर्ण के समान पीली आभा वाले कहे गए हैं और उनके वस्त्र भी पीले बताए गए हैं। स्वर्ण को सर्वश्रेष्ठ धन माना गया है, इसलिए स्वर्ण के द्योतक उनके पीत वस्त्र हैं।
उनके अतीव बली हाथ उनकी अपार शक्ति के प्रतीक हैं। उनके हाथ मेें सदा रहने वाला गदा दंड नीति का परिचायक है। उनकी पत्नी ऋध्दि देवी जीवन यात्रा की सकारात्मकता की प्रतीक हैं। रत्नपात्र उनके गुणों को प्रदर्शित करता है जबकि नर-विमान पर आरूढ़ होना उनकी राजसत्ता का प्रमाण है।
शंख और पद्म निधियों को प्रदर्शित करते है। धान के तोड़े से बनी, नेवले की आकार की थैली जिसे नकुली कहा जाता है उनके हाथ में होती है। धन के देवता के हाथ में यह थैली कुबेर प्रतिमा का आवश्यक अंग है।
कुबेर का निवास:
यजुर्वेद में काम के अधिष्ठाता देवता के रूप में सभी अभिलाषाएं पूर्ण करने वाले वैश्रवण (कुबेर) का उल्लेख आता है। प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख है कि उत्तर दिशा में जीवन के स्वस्थ उपभोग पर विश्वास करने वाली यक्ष संस्कृति भी फैली हुई थी, जिसने काव्य और ललित कलाओं का सर्वाधिक प्रसार किया।
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कुबेर की राजधानी कालीदास ने अलका बताई है जो हिमालय में मौजूद है। माना जाता है कि महाभारत में जिस मणिभद्र यक्ष का जिक्र है, वह बद्रीनाथ के पास माणा में ही निवास करते थे।
दरअसल भगवान शंकर की तपोस्थली देवभूमि जागेश्वर महादेव (अल्मोड़ा) के मुख्य परिसर से कुछ ही दूरी पर एक छोटी पहाड़ी की चोटी पर कुबेर का मंदिर है।
यह मंदिर अत्यंत चमत्कारी माना जाता है। मुख्य मंदिर परिसर से यह मंदिर परिसर करीब तीन सौ से चार सौ मीटर की दूरी पर है। इस परिसर के दो मुख्य मंदिर कुबेर मंदिर और देवी चंदिका मंदिर हैं।
इस मंदिर को लेकर यह कहा जाता है कि जो कोई व्यक्ति यहां से अपने साथ एक सिक्का भी ले जाता है और उसे संभाल कर अपने पूजा स्थल या तिजोरी में रखकर रोज उसकी पूजा करता है, उसे आजीवन कभी गरीबी का मुंह नहीं देखना पड़ता।
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