
प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम्... नात्मप्रियं प्रियं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं प्रियम। अर्थात प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजा के हित में उसका हित है। राजा का अपना प्रिय कुछ नहीं है, प्रजा का सुख ही उसका सुख है। संसद भवन की लिफ्ट संख्या छह के पास वाले गुंबद पर कौटिल्य के अर्थशास्त्र की ये पंक्तियां दर्ज हैं जो राजधर्म का सार है। लोकतंत्र के मंदिर में आज के पुजारी ये काम कितनी निष्ठा से कर रहे हैं, इसे जनता समान्य परिस्थितियों में हर पांच साल बाद जज करती है। जनता को जनार्दन मान उनके मुद्दों को उठाना सदन का सर्वोच्च संस्कार है। उस पर तार्किक बहस लोकतांत्रिक परिपाटी है ताकि सर्वोत्कृष्ट जनहितकारी नीतियों का परिमार्जन हो सके। खेद है। बहस और विरोध अब साधन नहीं रहे। साध्य हो गए हैं। ये सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों पर लागू होता है। किसानी पर अभी भी देश की 59 प्रतिशत आबादी आश्रित है। तो हम संसद से पारित तीन किसान कानूनों पर फोकस करते हैं। अड़ियल होने की पराकाष्ठा का आभास हो जाएगा। नरेंद्र मोदी सरकार का कहना है कि तीनों कानून किसानों के पक्ष में हैं। एक-एक पंक्ति में इनका जिक्र हो जाए। कृषक उत्पाद व्यापार और वाणिज्य कानून - इसके तहत एपीएमसी (पहले चली आ रही मंडियां) के बाहर भी किसान अपनी उपज बेच सकते हैं, उन्हें मंडी में लगने वाला टैक्स नहीं देना होगा। फार्मर्स एग्रीमेंट ऑफ प्राइस एश्योरेंस एंड सर्विसेज एक्ट - इसके तहत किसानों को कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग की आजादी मिलती है। तीसरा, आवश्यक वस्तु अधिनियम कानून - इसमें संशोधन कर दाल, तेज, प्याज जैसी उपज को दायरे से बाहर कर दिया गया है। यानी सरकार इसकी कीमत कंट्रोल नहीं करेगी। सरकार और संबित पात्रा दोनों हर दिन ये कहते हैं कि तीनों कानूनों से किसानों की आय दोगुनी करने में मदद मिलेगी। उधर टीकड़ी के सरदार राकेश टिकैत और उनकी आड़ में मोदी को सत्ता से बेदखल करने का सपना देख रहे राहुल गांधी और अन्य विपक्षी पार्टियों को लगता है कि इन कानूनों से देश का किसान बर्बाद हो जाएगा। मिट जाएगा। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) नहीं मिलेगा। इस पर सरकार कानूनी गारंटी दे। उधर सरकार कह रही है कि एपीएमसी एक्ट खत्म हुआ ही नहीं, मंडियां बंद हुई ही नहीं तो एमएसपी के खत्म होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। दोनों टस्स से मस्स नहीं हो रहे। बानगी तो राज्यसभा में पिछले साल ही दिख गई जब तृणमूल, कांग्रेस और वाम सांसदों ने डेप्युटी चेयरमैन हरिवंश से बदसलूकी की। तर्क था, किसानों के हितों के लिए ऐसा करना जरूरी हो गया। वे निलंबित हो गए। संदेश देने का संघर्ष अजीब दिखा। विपक्ष ने चाहा जनता समझ ले कि उनकी खातिर वे कुछ भी कर सकते हैं। सत्ता का संदेश था, देखिए वर्षों तक कुछ नहीं करने वाले अब मोदी का हाथ रोक रहे हैं। शबाब पर कौटिल्य का राजधर्म मॉनसून सत्र में बाढ़ की तबाही के बीच सदन चल रहा है और कौटिल्य के राजधर्म का सार शबाब पर है। ऐसा लग रहा है जैसे 59 फीसदी किसानों का इकलौता दुख दर्द ये तीनों कानून पर चल रहा आंदोलन खत्म कर देगा। लैंडस्लाइड, बाढ़ से हुए नुकसान पर चर्चा ट्विटर के जरिए हो रही है। शतकवीर पेट्रोल-डीजल भी किसान कानूनों के आगे फीका है। लेकिन विपक्ष का काम है कि मुद्दे उठाना। कौन सा जनता के फायदे के लिए है और कौन उनके फायदे के लिए, इस पर बहस की आवश्यकता रह नहीं गई है। बहरहाल सारी लहर टीएमसी वाले लूट रहे थे तो राहुल गांधी ने ट्रैक्टर की स्टियरिंग संभाल जता दिया कि मोदी के खिलाफ कोई भी कुनबा उनके बिना नहीं बन सकता। वो ट्रैक्टर पर सवार होकर संसद पहुंचे। तीनों कानूनों को वापस लेने की मांग की। आरोप लगाया कि किसानों को आतंकवादी कहा जा रहा है। सरकार किसानविरोधी है। ट्रैक्टर वैसे भी हलचल पैदा करता है। हम-आप जिन्हें भी इस पर बैठने का तजुर्बा है, वो समझ सकते हैं। तो ये हलचल सत्ता पक्ष में भी महसूस की गई। संबित पात्रा ने मोर्चा संभाला। एक न्यूज चैनल पर उनका टिकैत से सामना करा दिया गया। उन्होंने कहा, ट्रैक्टर से डर नहीं लगता. डर एक्टरों से लगता है। उन एक्टरों से लगता है जो ट्रैक्टर पर बैठ कर उसे बदनाम करता है। ट्रैक्टर गरीबों का सबसे बड़ा प्रयोजन है। ट्रैक्टर वो आयुध है जो धरती माता से उपज लेता है। मगर जो एक्टर उस पर बैठकर ड्रामा करते हैं। राहुल गांधी कौन से गांव में जाकर खेती करते हैं। ट्रैक्टर चलाना बाद में, पहले कांग्रेस चला लो। ट्रैक्टर से घबराना क्यों? हमारा सवाल है कि ट्रैक्टर से घबराना क्यों? जनप्रतिनिधि चाहता ही है कि वो जनता के मुद्दों को उठाने के लिए वो तरीका अपनाए जो सबका ध्यान खींचे। टीडीपी तो इसमें माहिर है। अलग तेलंगाना के खिलाफ उनके सांसदों ने संसद में कीर्तन शुरू कर दिया था। नोटबंदी के खिलाफ एक सांसद ने ऐसी पतलून सिलवाई जिसका एक हिस्सा ब्लैक, दूसरा व्हाइट था। उस पर गरीब जनता की कराहती हुई तस्वीर थी। पैदल, बस या साइकल से संसद पहुंचने का काम तो कई सांसदों ने किया है। खास तौर पर वामपंथी सांसदों ने। राहुल एक दिन ट्रैक्टर से पहुंच कर कितना पार्टी के लिए कितना माइलेज पा सके ये तो वक्त बताएगा। पर इस तरह का विरोध खुद अटल बिहारी वाजपेयी कर चुके हैं। मेरा मकसद राहुल गांधी से उनकी तुलना कतई नहीं है। जनता के मुद्दों को उठाने के लिए वाजपेयी हमेशा याद किए जाएंगे, इसमें कोई शक नहीं। 1973 में अटलजी बैलगाड़ी पर सवार होकर संसद पहुंचे थे। तब इंदिरा गांधी सरकार ने पेट्रोल के दाम सात पैसा प्रति लीटर बढ़ाए थे और इसके विरोध की अगुआई जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने की। मोदी की तरह इंदिरा भी सिंडिकेट और विरोध को परास्त कर प्रचंड बहुमत से 1971 में सत्तासीन हुई थीं। तब तेल के दाम बाजार की ताकतें नहीं बल्कि सरकार ही तय करती थी। जब पेट्रोल के दाम 100 के पार चले गए तो हाल ही में शशि थरूर, डेरेक ओ ब्रायन और अन्य नेताओं ने मोदी सरकार को आईना दिखाने के लिए बैलागड़ी वाले वीडियो का जुगाड़ किया। इसमें कुछ गलत भी नहीं है। हां, राहुल की टाइमिंग जरूर कमजोर है। नब्ज पकड़ने में कांग्रेस फिसड्डी साबित हो रही है। अभी तेल के दाम समेत महंगाई बड़ा मुद्दा है। लेकिन राहुल के पास इतना आत्मबल नहीं है कि इस मुद्दे पर कोई आंदोलन खड़ा कर सकें। कांग्रेस ही नहीं समूचा विपक्ष संयुक्त किसान मोर्चा का पिछलग्गू दिखाई दे रहा है। यहीं बीजेपी और विपक्ष में सबसे बड़े अंतर का पता चलता है।
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