बीजेपी का जो अतीत है, उसमें गुजरात के केशुभाई पटेल से लेकर मध्य प्रदेश की उमा भारती और यूपी के कल्याण सिंह तक ऐसे अनेकानेक उदाहरण मौजूद हैं। जैसे ही मुख्यमंत्री पद से हटाया गया, वे लोग अपने को सहज नहीं रख पाए और अंतत: ‘बागी’ ही हुए।
बीजेपी की टॉप लीडरशिप के बीच उत्तराखंड के पूर्व सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत को लेकर खासी सतर्कता बरती जा रही है। अगर वे बागी होते हैं, तो डैमेज कंट्रोल के लिए अभी से प्लान भी बनना शुरू हो गया है, क्योंकि उत्तराखंड में अगले विधानसभा चुनाव के लिए ज्यादा वक्त नहीं बचा है। बीजेपी का जो अतीत है, उसमें गुजरात के केशुभाई पटेल से लेकर मध्य प्रदेश की उमा भारती और यूपी के कल्याण सिंह तक ऐसे अनेकानेक उदाहरण मौजूद हैं। जैसे ही मुख्यमंत्री पद से हटाया गया, वे लोग अपने को सहज नहीं रख पाए और अंतत: ‘बागी’ ही हुए। त्रिवेंद्र सिंह रावत भी अपने को सहज नहीं रख पा रहे हैं। उनकी पीड़ा लगातार शब्दों का रूप ले रही है। वे यह कहते आए हैं कि उन्हें नहीं मालूम, क्यों हटाया गया। पिछले दिनों एक कार्यक्रम में उन्होंने एक कदम और आगे बढ़ते हुए कहा, ‘जब अभिमन्यु को कौरवों द्वारा छल से मारा जाता है तो मां द्रौपदी शोक नहीं करती हैं। मां द्रौपदी हाथ खड़े करके बोलती हैं, इसका प्रतिकार करो पांडवो। राजनीति में तो ये घटनाएं घटित होती रहती हैं।’ उनके इस वक्तव्य के राजनीतिक निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। माना जा रहा है कि उन्होंने अपने समर्थकों को गोलबंद होने का इशारा किया है। त्रिवेंद्र सरकार के निर्णयों को भी जिस तरह से तीरथ सिंह रावत सरकार पलट रही है, उसका भी यह मतलब निकल रहा है कि बीजेपी लीडरशिप त्रिवेंद्र सिंह रावत की छाया से बाहर आना चाहती है। इन सबके मद्देनजर आने वाले कुछ महीनों में उत्तराखंड की राजनीति काफी उठापटक वाली हो सकती है। देखना दिलचस्प होगा कि तीरथ सिंह रावत राज्य की स्थितियों पर किस तरह काबू पाते हैं।
पर्यवेक्षक? ना बाबा ना!
राजनीतिक गलियारों में इन दिनों कांग्रेस के लेकर एक मजाक चल रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस मजाक में खुद कांग्रेस के कई बड़े नेता शामिल हैं। कांग्रेस के आर्थिक संकट से गुजरने की बात कोई नई नहीं है। दो चुनाव से लगातार वह केंद्र की सत्ता से ही बाहर चल रही है, इस दरमियान राज्यों में भी वह सीमित हो गई है। इस सूरत में चुनाव प्रबंधन के लिए उसे जुगाड़ का रास्ता निकालना पड़ रहा है। जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, उसमें असम और केरल ऐसे दो बड़े राज्य हैं, जहां कांग्रेस सत्ता में वापसी की उम्मीद कर रही है। तमिलनाडु और वेस्ट बंगाल में वह जूनियर पार्टनर की भूमिका में है, और वहां उसका कुछ ज्यादा दांव पर लगा भी नहीं है। जो किस्सागोई हो रही है, वह यह कि कांग्रेस के अंदर यह मंथन शुरू हुआ कि इन राज्यों में धन का जुगाड़ कैसे हो? बड़े राज्यों में सिर्फ राजस्थान, पंजाब और छत्तीसगढ़ में ही कांग्रेस की सरकार बची है। सीधे तौर पर इन मुख्यमंत्रियों से कुछ भी कहना पार्टी लीडरशिप को अच्छा नहीं लग रहा था, लेकिन कोई रास्ता तो निकालना ही था। ऐसे में तय हुआ कि गहलोत को केरल का और भूपेंद्र सिंह बघेल को असम का पर्यवेक्षक बना दिया जाए। पर्यवेक्षक के रूप में अब इन दोनों राज्यों में प्रत्याशियों की तमाम जरूरतों को पूरा करने का जिम्मा उन्हीं पर डाल दिया गया। इसके बाद कैप्टन अमरिंदर सिंह से पूछा गया कि क्या वे भी किसी राज्य के पर्यवेक्षक बनना चाहेंगे, तो उन्होंने बगैर देर लगाए ना बोल दिया। उनका तर्क था कि अगले कुछ महीनों के अंदर खुद उनके यहां चुनाव होने हैं। पार्टी की जो हालत है, उसमें उन्हें खुद अपने राज्य का ‘पर्यवेक्षक’ बनना पड़ेगा। ऐसे में उन्हें किसी दूसरे राज्य का पर्यवेक्षक नहीं बनना है।
स्टालिन की नई चिंता
बिहार चुनाव के नतीजे से तमिलनाडु की डीएमके ने यह सबक लिया था कि कांग्रेस को ज्यादा सीटें नहीं देनी हैं। बिहार में कुछ सीटों के अंतर से सत्ता से दूर हो जाने के बाद आरजेडी में यह माना गया था कि कांग्रेस को ज्यादा सीटें देना बड़ी भूल थी, क्योंकि कांग्रेस अपने हिस्से की सीटें नहीं जीत पाई। अगर वे सीटें आरजेडी ने खुद लड़ी होतीं, तो नतीजा कुछ और हो सकता था। उसके बाद से ही डीएमके चीफ स्टालिन कहने लगे थे कि राज्य में कांग्रेस को उतनी ही सीटें लेनी चाहिए, जितने पर वह जीत सके। पिछले चुनाव में तमिलनाडु में कांग्रेस के हिस्से में 41 सीटें गई थीं। इस बार स्टालिन 18 ही देना चाहते थे, लेकिन समझौता आखिरकार 25 सीटों पर हुआ, जो कि पिछली बार से 16 कम हैं। कांग्रेस को 25 सीट दिए जाने के बाद स्टालिन को एक नई तरह की चिंता हो गई है। चिंता यह कि जब किसी पार्टी के पास कम विधायक होते हैं, तो उनके टूटने की संभावना ज्यादा होती है। राज्य में मतदान होने से एक हफ्ते पहले तक जिस तरह के रुझान देखने को मिल रहे हैं, उनमें डीएमके और एआईएडीएमके के बीच नजदीकी मुकाबले की संभावनाएं देखी जा रही हैं। अगर ऐसा होता है तो सरकार बनाने के लिए जोड़-तोड़ होगी, और उसमें कम विधायक वाली पार्टियों में टूट की संभावना बढ़ जाएगी। स्टालिन ने अपनी चिंता कुछ करीबी नेताओं के साथ साझा की है। उनका कहना है कि कांग्रेस विधायकों को संभालना सबसे मुश्किल काम होगा, क्योंकि मंत्री बनने की लालसा में वे कोई भी कदम उठा सकते हैं। हाल के वर्षों में कांग्रेस के विधायकों की टूट के सबसे ज्यादा मामले हुए भी हैं। मध्य प्रदेश में दो दर्जन विधायक तो एक साथ इस्तीफा देकर अपनी सरकार भी गिरा चुके हैं।
बंगाल का यूपी पर असर
बिहार में पांच सीट जीत लेने के बाद ओवैसी ने बंगाल में जो एंट्री की, उसके चलते एक वक्त यह माना जाने लगा कि वहां के चुनाव में वे बड़ा उलटफेर कर सकते हैं। वाया बंगाल उन्होंने यूपी में भी आने का ऐलान कर दिया था। लेकिन बंगाल में उन्हें जो ऊंचाई मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिल पाई, बल्कि एक तरह से वे वहां के चुनावी शोर में खो से गए हैं। वे पीरजादा अब्बास सिद्दीकी को चेहरा बनाकर बंगाल चुनाव में उतरना चाहते थे। उनसे उनकी कई दौर की मुलाकात भी हुई, लेकिन अब्बास सिद्दीकी अपनी अलग पार्टी बनाकर कांग्रेस और लेफ्ट गठबंधन के साथ हो गए। इसके बाद ओवैसी की पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष ने पार्टी छोड़ दी और टीएमसी के समर्थन में चले गए। इन सबके मद्देनजर ओवैसी बंगाल में जिस आक्रामकता के साथ चुनाव लड़ना चाहते थे, वह मुमकिन नहीं हो पाया। उन्होंने वहां अब बहुत सीमित संख्या में चुनाव लड़ने का फैसला किया है। नतीजा क्या रहेगा, इसको लेकर उनकी पार्टी में भी कोई बहुत उत्साह नहीं दिख रहा है। लेकिन इन सारे हालात से यूपी में कई राजनीतिक पार्टियों को काफी सुकून मिल रहा है। बंगाल के बाद ओवैसी यूपी में ही डेरा जमाने वाले थे। यूपी में उनकी आमद से मुस्लिम वोट बैंक के सहारे राजनीति करने वाली पार्टियों के समीकरण बिगड़ सकते थे, लेकिन अब ये पार्टियां मानने लगी हैं कि बंगाल के घटनाक्रम से ओवैसी के उत्साह में कमी आएगी और उनके पक्ष में जो माहौल बनने लगा था, उसमें भी बदलाव आ गया है। राज्य की अन्य छोटी-छोटी पार्टियां जो ओवैसी के साथ गठबंधन को लेकर उत्साह दिखा रही थीं, वे भी नए सिरे से सोचने को मजबूर होंगी।
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